Author: The Legal Lab | Date: 2024-07-05 09:15:30

प्रयागराज, 04 जुलाई (हि.स.)। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश पारित कर कहा कि न्यायालय में अधिवक्ताओं की दोहरी जिम्मेदारी है। वकीलों को कोर्ट में व्यवधान पैदा करने के बजाय न्यायालय की सहायता करनी चाहिए। न्यायालय ने जमानत याचिका की कार्यवाही के दौरान व्यवधान उत्पन्न करने वाले अधिवक्ता अरुण कुमार त्रिपाठी पर 10 हजार रुपये जुर्माना लगाया है।

मामला एक आपराधिक केस में जमानत को लेकर था। थाना जरछ, जिला गौतमबुद्ध नगर के मोहन ने हाईकोर्ट में जमानत अर्जी दाखिल की थी। मोहन के खिलाफ आरोपों में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376 और 354 (सी) और सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 67 के तहत गम्भीर अपराध शामिल थे। आरोप था कि मोहन ने एक महिला का नहाते समय वीडियो रिकॉर्ड किया, उसे ब्लैकमेल किया और वीडियो वायरल करने की धमकी देकर उसे शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर किया। अभियोजन पक्ष ने दावा किया कि मोहन ने शारीरिक संबंधों के आगे के कृत्यों को रिकॉर्ड करके इस व्यवहार को जारी रखा।

जमानत याचिका पर न्यायमूर्ति कृष्ण पहल ने सुनवाई की। दोनों पक्षों की दलीलों पर विचार करने के बाद, अदालत ने पाया कि मोहन के मोबाइल फोन से संबंधित वीडियो बरामद किया गया है और उसे फोरेंसिक विश्लेषण के लिए भेजा गया है। आरोपों की गम्भीरता और प्रस्तुत साक्ष्यों को देखते हुए, अदालत ने आवेदक को जमानत देने में कोई योग्यता नहीं पाई और खारिज कर दी।

हाईकोर्ट के इस निर्णय के बावजूद अधिवक्ता अरुण कुमार त्रिपाठी ने अपना पक्ष रखना जारी रखा, जिससे कार्यवाही में व्यवधान उत्पन्न हुआ। कोर्ट ने कहा कि अधिवक्ता का यह व्यवहार आपराधिक अवमानना के समान है। लेकिन कोर्ट ने अवमानना कार्यवाही शुरू करने से परहेज किया। इसके बजाय अधिवक्ता पर 10 हजार रुपये का जुर्माना लगाया गया। जिसे अधिवक्ता को 15 दिनों के भीतर उच्च न्यायालय विधिक सेवा प्राधिकरण के खाते में जमा करना होगा।

जस्टिस कृष्ण पहल ने आदेश में कहा कि आवेदक के वकील ने न केवल खुली अदालत में आदेश पारित होने के बाद भी मामले पर बहस जारी रखी, बल्कि कार्यवाही में व्यवधान भी डाला। इस व्यवहार को न्यायालय की आपराधिक अवमानना माना जाता है, क्योंकि यह न्यायिक प्रक्रिया के अधिकार और शिष्टाचार को कमजोर करता है।