Author: The Legal Lab | Date: 2025-04-07 20:19:25

भारत के आपराधिक न्याय तंत्र में FIR (प्रथम सूचना रिपोर्ट) की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण होती है। यह आपराधिक न्याय प्रक्रिया की पहली सीढ़ी है। हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि CrPC की धारा 154 और BNSS (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) की धारा 173 के तहत FIR दर्ज करने की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण अंतर है।

इस निर्णय के केंद्र में था एक मामला जिसमें कांग्रेस के राज्यसभा सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ गुजरात पुलिस द्वारा इंस्टाग्राम पर पोस्ट की गई एक कविता को लेकर दर्ज FIR को चुनौती दी गई थी।


CrPC की धारा 154: संज्ञेय अपराध की सूचना पर अनिवार्य FIR

CrPC (आपराधिक प्रक्रिया संहिता), 1973 की धारा 154 स्पष्ट करती है कि:

"यदि किसी पुलिस अधिकारी को संज्ञेय अपराध की सूचना मिलती है, तो वह FIR दर्ज करना अनिवार्य है।"

सुप्रीम कोर्ट के अनुसार:

  • इस धारा के तहत पुलिस को प्रारंभिक जांच करने की अनुमति नहीं है।

  • Lalita Kumari बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले में कहा गया कि जब सूचना स्पष्ट रूप से संज्ञेय अपराध की हो, तो FIR में देरी नहीं होनी चाहिए।


BNSS की धारा 173: FIR से पहले प्रारंभिक जांच की अनुमति

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 173 को CrPC की धारा 154 का स्थान लेने के लिए प्रस्तावित किया गया है। हालांकि इसकी धारा 173(1) CrPC की तरह ही FIR की प्रक्रिया को दोहराती है, लेकिन धारा 173(3) एक महत्वपूर्ण बदलाव लाती है।

क्या कहती है धारा 173(3)?

"यदि अपराध 3 वर्ष या उससे अधिक लेकिन 7 वर्ष से कम की सजा वाला है, तो पुलिस अधिकारी वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति से प्रारंभिक जांच कर सकता है, ताकि यह तय किया जा सके कि क्या मामला प्रथम दृष्टया बनता है या नहीं।"

इसका उद्देश्य:

  • झूठी शिकायतों और तुच्छ मामलों में तुरंत FIR दर्ज करने से बचना।

  • पुलिस को विवेक का प्रयोग करने का अवसर देना।


सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण: FIR दर्ज करने की प्रक्रिया में बड़ा बदलाव

जस्टिस अभय ओका और जस्टिस उज्ज्वल भुयान की पीठ ने अपने फैसले में कहा:

  • CrPC की धारा 154 में जहां एक बार संज्ञेय अपराध की जानकारी मिल जाए, वहां FIR दर्ज करना बाध्यकारी है।

  • BNSS की धारा 173(3) इसके विपरीत, कुछ मामलों में पुलिस को यह जांचने की छूट देती है कि क्या मामला दर्ज करने योग्य है।

अदालत का निष्कर्ष:

“BNSS की धारा 173(3), धारा 173(1) का अपवाद है। यह FIR दर्ज करने से पहले सीमित मामलों में प्रारंभिक जांच की अनुमति देती है।”

 

FIR पंजीकरण से जुड़े मुख्य अंतर (सारांश)

बिंदु CrPC धारा 154 BNSS धारा 173
FIR की अनिवार्यता हाँ हाँ
प्रारंभिक जांच की अनुमति नहीं हाँ (विशेष मामलों में)
वरिष्ठ अधिकारी की अनुमति आवश्यक नहीं हाँ (173(3) के तहत)
अपराध की सजा सीमा कोई प्रभाव नहीं केवल 3 से 7 वर्ष तक सजा वाले अपराध

निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से स्पष्ट होता है कि BNSS में FIR पंजीकरण प्रक्रिया में विवेक को स्थान दिया गया है, जो CrPC की तुलना में एक नया दृष्टिकोण है। यह बदलाव भविष्य में पुलिस प्रणाली और नागरिक अधिकारों के संतुलन को और अधिक न्यायसंगत बना सकता है।

क्या यह बदलाव आम नागरिकों के लिए फायदेमंद है या नई जटिलता लाएगा? अपने विचार नीचे कमेंट में बताएं।

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