Author: सोनालाल सिंह, पुलिस उपाधीक्षक (से० नि०) | Date: 2023-08-14 10:34:04

आरोप पत्र समर्पित करते समय अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस बाध्य नहीं !

पृष्टभूमि- द0 प्र0 स0 की धारा 41(1) के तहत यह विदित है कि जिन अपराधों में 7 साल तक सजा का प्रावधान है यथा भा0 द0 वि0 एवं अन्य अधिनियमों के अंतर्गत अभिकथित है उन अपराधों को कारित करने वाले अभियुक्त एक मान्य प्रक्रिया का पालन कर गिरफ़्तारी से विमुक्त हो जाते है। 

                                         वहीं वैसे अपराध जो जघन्य प्रकृति के हैं जहां सजा सात वर्ष से अधिक है, जैसे हत्या, लूट, डकैती, अपहरण, बलात्कार, आदि। जब भी इस प्रकार की कोई घटना घटती है, तो पुलिस पर गिरफ्तारी का दबाव बढ़ जाता है। इस प्रकार की घटनाओं में अक्सर गिरफ्तारी को लेकर विधि व्यवस्था की समस्या सुनने को मिलती है। फिर या तो अपने कर्तव्य पालन में या जनता के दबाव में अभियुक्त की गिरफ्तारी के लिए पुलिस को दर दर भटकना पड़ता है।

         प्रश्न उठता है कि अभियुक्त की गिरफ्तारी का भार केवल पुलिस पर ही क्यों? कानून पालन कराने की जवाबदेही सिर्फ पुलिस ही क्यों ले? आम लोग तो यही कहेंगे कि यह पुलिस का प्राथमिक कार्य है, इसके लिए पुलिस को वेतन मिलता है।

        बिलकुल सही पुलिस का प्राथमिक कार्य विधि व्यवस्था को बनाए रखना है। लेकिन सरकारें जो कानून बनाती है उसका पालन करना क्या आम जनता की नैतिक जवाबदेही नही है? भले ही जनता को वेतन प्राप्त नहीं हो रहा है, लेकिन सरकारें जो लाभकारी योजनाएं चला रही है उसका लाभ क्या जनता नही उठा रही है? राज्य या देश में अमन कायम रहे ये जनता नहीं चाहती? क्यों बार बार विधि व्यवस्था को कायम रखने के लिए पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ रहा है? क्यों लोग हर बात के लिए पुलिस का आने का इंतजार करते है? यहां तक कि सड़क पर आमने सामने दो गाड़ियां खड़ी है, दोनो आपस में सामंजस्य कर सड़क खाली कर सकते है; लेकिन जब तक पुलिस नही आती सड़क पर घंटो जाम लगी रहती है। ये तो मात्र एक उदाहरण है ऐसे कई सारे कार्य है, जो बिना पुलिस के भी सुलझाया जा सकता है। आम नागरिक अपने कानूनी दायित्वों को निभाने में थोड़ी भी रुचि दिखाए, तो पुलिस का बहुत सारा बोझ अपने आप कम हो जाएगा। 

         मौजूदा स्थिति में पुलिस के पास इतने कार्य है जिसकी गणना करते करते आप थक जाएंगे। सड़क जाम तो पुलिस, बिजली की समस्या तो पुलिस, नाली पानी की समस्या तो पुलिस, जमीन विवाद तो पुलिस, अगलगी हुई तो पुलिस, खाद वितरण तो पुलिस।  ऐसे हजारों कार्य है जिससे पुलिस को कोई लेना देना नही है, लेकिन जाबावदेही पुलिस पर आ ही जाती है। अभी हाल में कटिहार की घटना से सभी वाकिफ है, समस्या बिजली की, मुसीबत में कौन? पुलिस। इसके अतिरिक्त पुलिस का अपना मौलिक कार्य अनुसंधान करना है। मौजूदा जनसंख्या की तुलना में पुलिस बल की संख्या काफी कम है। एक एक अनुसंधानकर्ता के पास 50 से लेकर 70-80 तक कांड अनुसंधान के लिए लंबित है, अन्य कोई कार्य न की जाए, केवल अनुसंधान ही की जाए तो महीने में एक कांड के लिए एक दिन का भी समय नहीं मिलता। ऐसे में अनुसंधान की गुणवत्ता तो छोड़िए खानापूर्ति के लिए भी अनुसंधानकर्ता का पास समय का आभाव है।

        इन समयाभाव के बीच अभियुक्त की गिरफ्तारी पुलिस के लिए एक अलग चुनौती है।  तो क्या ऐसा कोई मैकेनिज्म तैयार नहीं हो सकता, जिससे पुलिस को अभियुक्त की गिरफ्तारी से राहत मिल जाए। कानून में इसके लिए कोई प्रावधान है क्या? तो आइए इन्ही बातों को समझने का प्रयास करते है।

       जब भी कोई घटना घटती है तो पुलिस एफ आई आर  दर्ज कर उसका अनुसंधान करती है, अभियुकत को गिरफ्तार कर न्यायालय में प्रस्तुत करती है, आरोप पत्र समर्पित करती है, फिर मामले पर न्यायालय में विचरण होता है। अब प्रश्न उठता है क्या किसी व्यक्ति पर आरोप पत्र समर्पित करने के लिए उसकी गिरफ़्तारी आवश्यक है? 

दंड प्रक्रिया संहिता में प्रावधान-                                                 

         पुलिस किसी आरोपी के विरुद्ध दंड प्रक्रिया संहिता कि धारा 170 के अंतर्गत किसी आरोपी के विरुद्ध आरोपपत्र समर्पित करती है। धारा 170 दंड प्रक्रिया संहिता का अनुसार- 

         जब पुलिस को किसी अपराध के अन्वेषण के बाद यह विश्वास हो जाता है कि कांड मे आरोप की पुष्टि हो रही है और अभियुक्त के विरुद्ध आरोप पत्र समर्पित करने का पर्याप्त आधार है, तब पुलिस अधिकारी उस रिपोर्ट पर उस अपराध के लिए संज्ञान लेने हेतु सक्षम मैजिस्ट्रैट के पास अभियुक्त को अभिरक्षा में भेजेगा।   

        यदि अपराध जमानतीय है और अभियुक्त प्रतिभूति देने में समर्थ है तो पुलिस ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष नियत समय पर उसके हाजिर होने के लिए और ऐसे मजिस्ट्रेट के समक्ष, जब तक अन्यथा निदेश न दिया जाए तब तक, दिन प्रतिदिन उसकी हाजिरी के लिए प्रतिभूति लेगा।

         वह अधिकारी, जिसकी उपस्थिति में बंधपत्र निष्पादित किया जाता है, उस बंधपत्र की एक प्रतिलिपि उन व्यक्तियों में से एक को परिदत्त करेगा जो उसे निष्पादित करता है और तब मूल बंधपत्र को अपनी रिपोर्ट के साथ मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।

        इस धारा में उल्लिखित है कि “अभियुक्त के विरुद्ध आरोप पत्र समर्पित करने का पर्याप्त आधार है, तब पुलिस अधिकारी उस रिपोर्ट पर उस अपराध के लिए संज्ञान लेने हेतु सक्षम मैजिस्ट्रैट के पास अभियुक्त को अभिरक्षा में भेजेगा।”   

        इस धारा में उल्लिखित अभिरक्षा शब्द ही है जो किसी अभियुक्त को आरोप पत्र के समय अभ्युक्त की गिरफ़्तारी को निर्धारित करती है। अभिरक्षा दो प्रकार की  होती है, एक पुलिस अभिरक्षा और दूसरा न्यायायिक अभिरक्षा। लेकिन यहाँ सिर्फ अभिरक्षा “custody” शब्द का प्रयोग किया गया है, कौन सी अभिरक्षा होगी स्पष्ट नहीं है, जिसके चलते संशय बनी हुई है।

माननीय न्यायालय का न्यायादेश-

                                             इस संदर्भ में माननीय सर्वोच्च न्यायालय का एक निर्णय उल्लेखनीय है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने SIDDHARTH VERSUS THE STATE OF UTTAR PRADESH & ANR. CRIMINAL APPEAL NO.838 OF 2021 (Arising out of SLP(Crl.) No.5442/2021) में दिल्ली उच्च न्यायालय के उस आदेश को शामिल किया है, जिसमे अभिरक्षा शब्द की  व्याख्या की गई है जो इस प्रकार है- 

15. Word "custody" appearing in this section does not contemplate either police or judicial custody. It merely connotes the presentation of accused by the Investigating Officer before the Court at the time of filing of the charge-sheet where after the role of the Court starts. Had it not been so the Investigating Officer would not have been vested with powers to release a person on bail in a bailable offense after finding that there was sufficient evidence to put the accused on trial and it would have been obligatory upon him to produce such an accused in custody before the Magistrate for being released on bail by the Court.

कोर्ट ने आगे कहा है 

                      16. In case the police/Investigating Officer thinks it unnecessary to present the accused in custody for the reason that accused would neither abscond nor would disobey the summons as he has been co-operating in investigation and investigation can be completed without arresting him, the IO is not obliged to produce such an accused in custody.

                 20. Rather the law is otherwise. In normal and ordinary course the police should always avoid arresting a person and sending him to jail, if it is possible for the police to complete the investigation without his arrest and if every kind of co-operation is provided by the accused to the Investigating Officer in completing the investigation. It is only in cases of utmost necessity, where the investigation cannot be completed without arresting the person, for instance, a person may be required for recovery of incriminating articles or weapon of offense or for eliciting some information or clue as to his accomplices or any circumstantial evidence, that his arrest may be necessary. Such an arrest may also be necessary if the concerned Investigating Officer or Officer-in-charge of the Police Station thinks that presence of accused will be difficult to procure because of  grave and serious nature of crime as the possibility of his absconding or disobeying the process or fleeing from justice cannot be ruled out.”

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने केवल दिल्ली उच्च न्यायालय  के निर्णय का ही हवाला नहीं दिया बल्कि समान राय रखने वाले दीनदयाल किशनचंद और अन्य बनाम गुजरात राज्य में गुजरात हाई कोर्ट के उस आदेश का भी जिक्र किया जिसमे कोर्ट ने कहा है कि 

 “2.…It was the case of the prosecution that two accused, i. e. present petitioners Nos. 4 and 5, who are ladies, were not available to be produced before the Court along with the charge-sheet, even though earlier they were released on bail. Therefore, as the Court refused to accept the charge-sheet unless all the accused are produced, the charge-sheet could not be submitted, and ultimately also, by a specific letter, it seems from the record, the charge-sheet was submitted without accused Nos. 4 and 5. This is very clear from the evidence on record. […]

                                              8. I must say at this stage that the refusal by criminal Courts either through the learned Magistrate or through their office staff to accept the charge-sheet without production of the accused persons is not justified by any provision of law. Therefore, it should be impressed upon all the Courts that they should accept the charge-sheet whenever it is produced by the police with any endorsement to be made on the charge-sheet by the staff or the Magistrate pertaining to any omission or requirement in the charge-sheet. But when the police submit the charge-sheet, it is the duty of the Court to accept it especially in view of the provisions of Section 468 of the Code which creates a limitation of taking cognizance of offence. Likewise, police authorities also should impress on all police officers that if charge-sheet is not accepted for any such reason, then attention of the Sessions Judge should be drawn to these facts and get suitable orders so that such difficulties would not arise henceforth.”     

निरोपित तथ्य 

                  उपरोक्त न्यायादेश से यह परिलक्षित हो जाता है कि धारा 170 दंड प्रक्रिया संहिता के तहत पुलिस किसी अभियुक्त के विरुद्ध आरोप पत्र समर्पित करते समय अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए बाध्य नहीं है, जब तक पुलिस को ऐसा न लगे कि अनुसंधान के दौरान कांड के उद्भेदन के लिए किसी अभियुक्त को गिरफ्तार किया जाना आवश्यक है। यह विडंबना ही कही जाएगी इतना स्पस्ट आदेश के बावजूद आज भी हजारों की संख्या में पुलिस के पास अभियुक्त की गिरफ़्तारी को लेकर कांड लंबित है। 

विचारणीय विंदु 

                    यह एक विचारणीय विंदु है कि गिरफ़्तारी को अनुसंधान का एक अहम भाग बना दिया गया है, और कार्रवाई में यह उच्च प्राथमिकता के शीर्ष पर जा बैठा है। किसी कांड में अभियुक्त की गिरफ़्तारी हो जाने पर प्रायः अनुसंधान को पूर्ण मान लेने की स्थिति में अनुसंधानकर्ता आ जाता है, शेष साक्ष्य के विंदु संकलित होने की अपेक्षा नजरअंदाज होते चले जाते है। अगर कोई अभियुक्त गिरफ़्तारी से अपने को बचाने का उपक्रम कर रहा है, तो द0 प्र0 स0 की धारा 82/83 के तहत अन्वेषण प्रक्रिया का भजक बनता है, परंतु भा0द0वि0 की धारा 174a यह भी उक्ति उच्चारित करता है कि द0 प्र0 स0 की धारा 82 की प्रक्रिया की अवहेलना करने वाले अभियुक्त 3 वर्ष से 7 वर्ष तक की सजा के जद में आएंगे। 

                                                                             इस प्रकार साक्ष्य संकलन को प्राथमिकता की सूची में शीर्षतम रखा जाना चाहिए। गिरफ़्तारी को क्रमशः द0प्र0स0 की धाराओं/न्यायादेशों के परिप्रेक्ष्य में अमलित किया जाना चाहिए।                                  


 

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