गिरफ़्तारी के मामलों में अब भी नहीं संभली, तो आने वाले दिनों में पुलिस को और भी मुसीबतों का सामाना करना पड़ सकता है। अरनेश कुमार बनाम बिहार सरकार में माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद भी अभियुक्तों की गिरफ़्तारी को लेकर पुलिस अब भी लापरवाह है।
2014 में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने अरनेश कुमार बनाम बिहार सरकार के फैसले में अभियुक्तों की गिरफ़्तारी को लेकर कुछ दिशा निर्देश जारी किया था, जिसके अनुपालन में पुलिस द्वारा कहीं न कहीं अभी भी लापरवाहियाँ बरती जा रही है, जिसका खामियाजा भी पुलिस वालों को ही भुगतना पड़ रहा है, लेकिन फिर भी पुलिस अपनी गलतियों से सबक लेने को तैयार नहीं है।
2021 में राकेश कुमार बनाम विजयंत आर्य (DCP) एवं अन्य (CONT.CAS(C) 480/2020 & CM APPL. 25054/2020) के मामले में एक पुलिस पदाधिकारी जो जो सात साल से कम के सजा वाले कांडों में एक व्यक्ति की गिरफ़्तारी की थी, जिसमे नियमतः अभियुक्त को द.प्र.स. की धारा 41A के तहत नोटिस देकर उपस्थित कराना था, लेकिन अनुसंधानकर्ता ने अभियुक्त को बिना नोटिस दिए गिरफ्तार कर लिया, परिणामतः माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय ने संबंधित अधिकारी को एक दिन का कारावास एवं 2000 रुपए के जुर्माने की सजा सुनाई।
इसी प्रकार कुलदीप बनाम कर्नाटक सरकार एवं अन्य के मामले में अरनेश कुमार बना म बिहार सरकार के आदेश के उलंघन पर कोर्ट के आदेश के अवमानना के आरोप में तीन लाख रुपए का जुर्माना लगाया गया।
हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने शाहजहांपुर में कंठ थाने के प्रभारी चंदन कुमार नामक एक पुलिस अधिकारी को अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का अनुपालन ना करने पर 14 दिनों की हिरासत और 1000 रुपये के जुर्माने की सजा सुनाई गई। इस मामले में अवमाननाकर्ता [चन्दन कुमार, थाना प्रभारी, कंठ, जिला शाहजहांपुर] ने सीआरपीसी की धारा 41-ए के तहत आरोपी को नोटिस दिया, लेकिन, उसने जानबूझकर जीडी में दर्ज किया कि आरोपी ने नोटिस के नियमों और शर्तों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। दरअसल, इस पुलिस अधिकारी ने यह कहकर मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की कि चूंकि आरोपी मुस्लिम समुदाय का है और इसलिए उसे गिरफ्तार नहीं किया गया तो सांप्रदायिक दंगों की आशंका है।जस्टिस सुनीत कुमार और जस्टिस सैयद वाइज़ मियां की पीठ ने सजा के मामले पर सहानुभूतिपूर्ण विचार करने से इनकार कर दिया, यह कहा गया कि यह सार्वजनिक हित और न्याय के प्रशासन के हित में नहीं होगा।
इसी महीने केरल हाईकोर्ट ने एक मामले में प्रथम दृष्टया यह माना कि पुलिस अधिकारी ने अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य और अन्य [एआईआर 2014 एससी 2756] मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हुए एक व्यक्ति को गिरफ्तार कर अदालत की अवमानना की है। जस्टिस ए मोहम्मद मुश्ताक और जस्टिस सोफी थॉमस की खंडपीठ ने प्रतिवादी पुलिस अधिकारी को अगली तारीख पर उसके सामने पेश होने का निर्देश दिया। याचिकाकर्ता का यह कहना है कि अर्नेश कुमार (सुप्रा) मामले में प्रतिवादी ने उसे सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करते हुए गिरफ्तार किया। उक्त मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 41A के तहत स्पष्ट रूप से उन मामलों में अभियुक्त को गिरफ्तार करने के लिए उन शर्तों को निर्धारित किया, जहां 7 वर्ष से कम अवधि के कारावास या 7 वर्ष तक के कारावास से दंडनीय अपराध हो सकता है, भले ही जुर्माने के साथ या उसके बिना।
माननीय न्यायालय के इतना कड़ा रुख के बाद भी पुलिस संभलने को तैयार नहीं है। आए दिन कहीं न कहीं ऐसी गिरफ्तारियां हो रही है। आज लोग जागरूक हो रहे है और जैसे जैसे जागरूकता बढ़ेगी आवमानना के और भी मामले सामने आएंगे।
अभियुक्तों की गिरफ़्तारी को लेकर अब तक माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दो लैंडमार्क जजमेंट दिए गए है, पुलिस के लिए दोनों निर्देशों का अनुपालन करना बाध्यकारी है।
अरनेश कुमार बनाम बिहार सरकार एवं अन्य के मामले में क्या है निर्देश:
2 जुलाई 2014 को सुप्रीम कोर्ट की ओर से अर्नेश कुमार बनाम बिहार सरकार के मामले फैसला दिया गया, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि वैसी घटना जिसमें 7 साल से कम की सजा है उसमें तत्काल पुलिस गिरफ्तारी नहीं करेगी बल्कि वैसे कांडों में पुलिस के पास कोई पीड़ित शिकायत लेकर आता है तो आरोपी को पुलिस नोटिस भेजेगी और थाने बुलाकर पूछताछ करेगी।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय में यह सुनिश्चित करने के लिए कि पुलिस अधिकारी अभियुक्त को अनावश्यक रूप से गिरफ्तार न करे और न ही मजिस्ट्रेट यंत्रवत और आकस्मिक रुप से अभिरक्षा अधिकृत करे, इस क्रम में निम्नलिखित दिशा-निर्देश जारी किए -
1. सभी राज्य सरकारें अपने पुलिस अधिकारियों को निर्देश दें, कि वे भारतीय दंड संहिता की धारा 498-ए के अधीन अपराध पंजीकृत होने पर किसी व्यक्ति को स्वतः गिरफ्तार न करें बल्कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41 के संबंध मे उपबंधित निर्धारित मापदंडों के अधीन, गिरफ्तारी की आवश्यकता के बारे मे स्वयं को संतुष्ट करें ।
2. सभी पुलिस अधिकारियों को धारा 41 (1) (b) (ii) के अन्तर्गत चेक लिस्ट (check-list) प्रदत की जाए।
3. पुलिस अधिकारी अभियुक्त को आगे और निरोध में रखने के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करते समय गिरफ्तारी के लिए आवश्यक कारण और सामग्री के साथ चेक लिस्ट को प्रस्तुत करेगा।
4. मजिस्ट्रेट अभियुक्त को निरोध प्राधिकृत करते हुए, पुलिस अधिकारी द्वारा पूर्वोक्त अनुसार प्रस्तुत रिर्पोट का अवलोकन करेगा तथा अपनी संतुष्टि को अभिलिखित करने के बाद ही मजिस्ट्रेट निरोध प्राधिकृत करेगा। I
5. अभियुक्त को गिरफ्तार न करने के निर्णय को, प्राथमिकी दर्ज होने की तारीख से 15 दिनों के भीतर, संबंधित मजिस्ट्रेट के पास लिखित कारणों के साथ प्रेषित किया जाए, कारणों को अभिलिखित करते हुए जिले के पुलिस अधीक्षक द्वारा समयावधि बढ़ाया जा सकता है।
6. दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 41A की शर्तों में हाजिरी की सूचनाप्राथमिकी दर्ज होने होने की तारीख से 15 दिनों के भीतर अभियुक्त पर तामील की जाए, जिसे लिखित में कारणों को अभिलिखित करते हुए जिले के पुलिस अधीक्षक द्वारा बढ़ाया जा सकता है।
7. उपर्युक्त निर्देशों के अनुपालन में असफल रहने पर संबंधित पुलिस अधिकारी विभागीय कार्रवाई के अलावा, वे क्षेत्रीय अधिकारिता रखने वाले उच्च न्यायालय के समक्ष न्यायालय की अवमानना के दंड के लिए भी उत्तरदायी होंगे।
8. संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा उपयुक्त कारणों को अभिलिखित किए बिना निरोध प्राधिकृत करने पर, समुचित उच्च न्यायालय के द्वारा विभागीय कार्यवाही के लिए उत्तरदाई होगा। उपरोक्त निर्देश ना केवल दहेज प्रतिषेध अधिनियम की धारा 4 या भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के अंतर्गत मामलों में लागू होंगे बल्कि ऐसे सभी मामलों में भी लागू होंगे, जहां अपराध ऐसी अवधि के कारावास के दंडनीय है, जो 7 वर्ष से कम की है या 7 वर्ष तक की हो सकती है चाहे वह जुर्माने सहित हो या रहित ।
इसी प्रकार डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य, (1997 ) 1 SCC 416 / D.K. Basu v. State of West Bengal, (1997 ) 1 SCC 416. में माननीय न्यायालय ने अभयुक्तों की गिरफ्तारी और हिरासत के सभी मामलों में संवैधानिक और वैधानिक सुरक्षा उपायों के अलावा 11 दिशानिर्देशों की एक सूची जारी की जो इस प्रकार हैं: –
1.गिरफ्तारी करने वाले और गिरफ्तार व्यक्ति से पूछताछ करने वाले पुलिस कर्मियों को अपने पद तथा नाम के साथ सटीक, दृश्यमान और स्पष्ट पहचान लेबल पहनना होगा। गिरफ्तार व्यक्ति की पूछताछ करने वाले सभी कर्मियों का विवरण एक रजिस्टर में दर्ज किया जाना चाहिए।
2. गिरफ़्तारी करने वाले पुलिस अधिकारी को गिरफ़्तारी के समय गिरफ़्तारी का मेमो तैयार करना होगा, ऐसा मेमो कम से कम एक गवाह द्वारा प्रमाणित किया जाएगा, जो या तो गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के परिवार का सदस्य हो सकता है या उस इलाके का एक सम्मानित व्यक्ति हो सकता है जहां से गिरफ्तारी की गई है। इस पर गिरफ़्तारी द्वारा प्रतिहस्ताक्षर भी किया जाएगा और इसमें गिरफ़्तारी का समय और दिनांक शामिल होगा।
3. एक व्यक्ति जिसे गिरफ्तार किया गया है या हिरासत में लिया गया है और एक पुलिस स्टेशन या पूछताछ केंद्र या अन्य लॉक-अप में हिरासत में रखा जा रहा है, वह अपने एक दोस्त या रिश्तेदार या अन्य व्यक्ति को उसके जानने या कल्याण में रुचि रखने वाले व्यक्ति को सूचित करने का हकदार होगा, जितनी जल्दी संभव हो सके उसकी गिरफ़्तारी की सूचना उसके हित चाहने वाले को दी जाए जब तक कि गिरफ्तारी के मेमो का प्रमाणित गवाह खुद गिरफ्तार व्यक्ति का ऐसा दोस्त या रिश्तेदार न हो।
4. यदि बंदी का दोस्त या रिश्तेदार जिले या शहर के बाहर रहता है तो पुलिस को उस बंदी के हिरासत की समय और हिरासत की जगह के बारे में जिले के कानूनी सहायता संगठन और संबंधित क्षेत्र के पुलिस स्टेशन के जरिए टेलिग्राफ से गिरफ्तारी के 8 से 12 घंटे की अवधि के भीतर सूचना देनी होगी।
5. गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को इस अधिकार से अवगत कराया जाना चाहिए कि जैसे ही उसे गिरफ्तार किया जाता है या हिरासत में लिया जाता है, उसकी गिरफ्तारी या नजरबंदी के बारे में किसी को सूचित किया जाता है।
6. गिरफ्तारी के स्थान पर केस डायरी में एक प्रविष्टि दर्ज की जानी चाहिए जो उस व्यक्ति के उस दोस्त के नाम का भी खुलासा करेगा जिसे गिरफ्तारी की सूचना दी गई है और उस पुलिस अधिकारी के नाम और विवरण भी जिसकी हिरासत में वह व्यक्ति है।
7. अनुरोध करने पर, गिरफ्तारी के समय गिरफ़्तार व्यक्ति की जांच भी की जानी चाहिए और यदि उसके शरीर पर कोई चोट के निशान मौजूद है, तो उस समय उसे भी रिकॉर्ड किया जाना चाहिए। “निरीक्षण मेमो” को बंदी और गिरफ्तार करने वाले पुलिस अधिकारी दोनों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए और बंदी को इसकी एक प्रति भी प्रदान की जानी चाहिए।
8. राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के स्वास्थ्य सेवा निदेशक द्वारा नियुक्त या अनुमोदित एक चिकित्सक द्वारा हिरासत में रखने के दौरान हिरासत में लिए गए व्यक्ति का प्रत्येक 48 घंटे में चिकित्सीय परीक्षण होनी चाहिए।
9. गिरफ्तारी मेमो सहित सभी दस्तावेजों की प्रतियां, पंजीकरण के लिए मजिस्ट्रेट को भेजी जानी चाहिए।
10. पूछताछ के दौरान गिरफ़्तार व्यक्ति को अपने वकील से मिलने की अनुमति दी जा सकती है, हालांकि सम्पूर्ण पूछताछ के दौरान नहीं।
11. सभी केंद्रीय जिला और राज्य कार्यालयों में एक पुलिस नियंत्रण कक्ष उपलब्ध कराया जाना चाहिए, जहाँ गिरफ्तारी करने वाले अधिकारी को गिरफ़्तारी के बाद, गिरफ्तारी के 12 घंटे के भीतर गिरफ़्तारी और हिरासत में रखने के स्थान के बारे में जानकारी देनी होगी और इसे पुलिस नियंत्रण कक्ष में एक दृश्य सूचना बोर्ड पर प्रदर्शित किया जाना चाहिए।
उपरोक्त निर्देशों का अनुपालन जिन अधिकारियों द्वारा नहीं की जाएगी वो विभागीय कारवाई के अलावा अदालत की अवमानना के भी दोषी माने जाएंगे। अवमानना की कारवाई संबंधित क्षेत्र के उच्च न्यायालय में शुरू कि जा सकती है।
इतने स्पष्ट आदेश के बावजूद भी अभियुक्तों की गिरफ़्तारी में असावधानी होगी, तो माननीय न्यायालय का आदेश की अवमानना का मामला तो बनता ही है।
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