नए कानून में प्राथमिकी (एफ.आई.आर) दर्ज करने के लिए किए गए बदलाव
25 दिसंबर 2023 को भारत के महामहिम राष्ट्रपति ने तीन नए आपराधिक संहिता विधेयकों को अपनी सहमति दे दी है , जिन्हें हाल ही में संसद ने मंजूरी दी थी। ये नए कानून, हैं भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम। ये तीनों कानून भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1972 का स्थान लेंगे।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस), 2023, जो दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 का स्थान लेने जा रहा है, में अन्य परिवर्तनों के अलावा, जीरो-एफआईआर, ई-एफआईआर और कुछ मामलों एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच का प्रावधान किया गया हैं। आज हम इस आलेख के माध्यम से इन्ही तीनों अवधारणाओं और प्रावधानों को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे।
जीरो एफ.आई.आर.
जीरो एफ.आई.आर क्या होता है? जब कोई व्यक्ति किसी संज्ञेय अपराध (जिसमें अपराध कोई पुलिस अधिकारी बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकता है) की सूचना वैसे थानों में देता है, जिसके क्षेत्राधिकार में घटना घटित नहीं हुई है, बल्कि घटना किसी अन्य थाने के क्षेत्राधिकार में घटी है, तब जिस थाने में सूचना दी जाती है उसे थाने का भारसाधक पदाधिकारी एफ.आई.आर करते समय एफ.आई.आर पर जो नंबर बिठाता हैं, वह नंबर जीरो होता है और एफ.आई.आर की प्रति उसे क्षेत्राधिकार वाले थाने को भेज देता है, जहां घटना घटित हुई है। इस प्रकार के एफ.आई.आर को जीरो एफ.आई.आर. कहा जाता है।
इसे आप उदाहरण के रूप में इस प्रकार समझ सकते है। मान लीजिए किसी व्यक्ति के साथ वैशाली जिला के लालगंज थाने के क्षेत्राधिकार अंतर्गत लूट की घटना घटित हुई है, वह व्यक्ति अपराधी के भय से या अन्य कारणों से लालगंज थाना क्षेत्र से बाहर निकल गया और मुजफ्फरपुर पहुंचकर मुजफ्फरपुर सदर थाने में घटना की सूचना देता है। मुजफ्फरपुर सदर थाने के भारसाधक पदाधिकारी उस व्यक्ति की सूचना पर प्राथमिकी दर्ज करता है। चुकि वह घटना मुजफ्फरपुर सदर थाना क्षेत्र के क्षेत्राधिकार में घटित नहीं हुआ है, इसलिए उस प्राथमिकी पर मुजफ्फरपुर सदर थाना द्वारा जो नंबर दिया जाएगा वह जीरो नंबर होगा और उस प्राथमिकी प्रति सदर थाना मुजफ्फरपुर द्वारा लालगंज थाने को भेज दिया जाएगा ताकि लालगंज थाने में औपचारिक प्राथमिकी दर्ज की जा सके। इस प्रकार सादर थाना मुजफ्फरपुर द्वारा दर्ज एफ.आई.आर ज़ीरो एफ.आई.आर कहलाएगा।
दंड प्रक्रिया संहिता 1973 की धारा 154 में एफ.आई.आर दर्ज करने का प्रावधान वर्णित है, लेकिन यहां पर जीरो एफ.आई.आर का कोई लिखित प्रावधान नहीं है। हालांकि अभी भी जीरो एफ.आई.आर व्यवहारिक तौर पर दर्ज होते हैं लेकिन जीरो एफ.आई.आर के लिए पुलिस विधिक रूप से सशक्त नहीं था। बीएनएसएस में ज़ीरो एफ.आई.आर किए जाने का प्रावधान है। नए कानून में एफ.आई.आर का प्रावधान धारा 173 में वर्णित किया गया है-
“173. (1) संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित प्रत्येक सूचना ,अपराध चाहे किसी भी सीमा क्षेत्र में किया गया हो, किसी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी को मौखिक या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से दिया जा सकता है-
i) यदि सूचना मौखिक रूप से दी जा रही है तो, इसे पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा या उसके निर्देशन में लिखा जाएगा और पढ़कर सूचक को सुनाया जाएगा और ऐसी प्रत्येक सूचना, चाहे लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लिखा गया है, सूचना देने वाले व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा;
ii) यदि सूचना इलेक्ट्रॉनिक संचार द्वारा दिया गया है,तो इसे पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा रिकॉर्ड पर लिया जाएगा और इसे देने वाले व्यक्ति द्वारा तीन दिनों के भीतर हस्ताक्षरित किया जाएगा।
कहने की जरूरत नहीं है कि जीरो-एफ.आई.आर के प्रावधान से पीड़ितों को मदद मिलेगी क्योंकि पुलिस अधिकारी क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र की परवाह किए बिना पहली सूचना दर्ज करने के लिए बाध्य होंगे। बीएनएसएस ने अब जीरो एफ.आई.आर को वैधानिक रूप दे दिया है।
ई-एफ.आई.आर
इसके अलावा, धारा 173 इलेक्ट्रॉनिक रूप से एफआईआर दर्ज करने का भी प्रावधान करती है। अब इलेक्ट्रॉनिक माध्यम जैसे ए-मेल , व्हाट्सएप, टेलीग्राम आदि माध्यमों से भी एफ.आई.आर दर्ज कराई जा सकती है। हालाँकि, ई-एफ.आई.आर को भौतिक रूप से रिकॉर्ड पर लेने से पहले ऐसी जानकारी देने वाले व्यक्ति का हस्ताक्षर तीन दिनों के भीतर लेना आवश्यक है।
प्रारंभिक जांच
इसके अलावा, बीएनएसएस की धारा 173(3) में तीन साल या उससे अधिक लेकिन सात साल से कम की सजा वाले मामलों की प्रारंभिक जांच को वैधानिक मान्यता दी गई है। इसे पुलिस उपाधीक्षक स्तर के अधिकारी की पूर्व अनुमति से प्रारंभ किया जा सकेगा। प्रारम्भिक रूप से, ऐसे मामलों में जहां प्रथम दृष्टया मामला संदिग्ध हो, चौदह दिनों की अवधि के भीतर जांच की जाएगी। हालाँकि, ऐसे मामलों में जहां प्रथम दृष्टया संज्ञेय मामला प्रतीत होता है, पुलिस अधिकारी अग्रतार कारवाई करेंगे।
सुविधा के लिए, धारा 173(3) इस प्रकार है:
(3) धारा 175 में निहित प्रावधानों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने से संबंधित जानकारी प्राप्ति पर, जिसे तीन साल या उससे अधिक लेकिन सात साल से कम, दंडनीय बनाया गया है, पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी किसी ऐसे अधिकारी की पूर्व अनुमति से, जो उपाधीक्षक स्तर से नीचे का न हो, अपराध की प्रकृति और गंभीरता को देखते हुए,-
(i) प्रारंभिक जांच करेगा कि क्या कोई मौजूदा मामले में कार्यवाही के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनता है जांच कि अधिकतम सीमा 14 दिनों की होगी।
(ii) यदि प्रथम दृष्टया मामला बनाता है, तो तत्काल कारवाई की जाएगी।
इस संबंध में यह जानना आवश्यक है कि ललिता कुमारी बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश में पुलिस को संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्त होने पर क्या कार्रवाई की जाएगी। इस संबंध में दिशानिर्देश जारी किये गये है। अब तक पुलिस को किसी संज्ञेय अपराध की सूचना प्राप्ति पर जांच का अधिकार नहीं था। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ललिता कुमारी बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश में श्रेणीक्रम में बतलाया है कि पुलिस को जब भी संज्ञेये अपराध की सूचना प्राप्त होती है तो प्राथमिकी दर्ज करना पुलिस की बाध्यता है।
“Registration of FIR is mandatory under section 154 of the code, if the information discloses commission of a cognizable offence and no preliminary inquiry is permissible in such a situation. If the information received, does not disclose recognizable offence but indicates the necessity for an inquiry, a preliminary inquiry may be conducted only to ascertain whether cognizable offence is disclosed or not.”
इस प्रकार अब तक पुलिस को जाँच का अधिकार केवल इतना था कि सूचित अपराध संज्ञेय है या असंज्ञेय। ललिता कुमारी के मामले में पुलिस को जिन अपराधों में जाँच का अधिकार प्राप्त था वो इस प्रकार है-
ए) शादी विवाह / पारिवारिक मामले
बी) वाणिज्यिक अपराध
सी) मेडिकल लापरवाही
डी) corruption के मामले एवं
ई)बिना किसी कारण के देर से दी गई सूचना
लेकिन बीएनएसएस 2023 के आने के बाद यह बाध्यता समाप्त हो जायेगी। जहां प्रथम दृष्टया संज्ञेय अपराध बनता है, वहाँ पुलिस पूर्व की भाँति प्राथमिकी दर्ज कर अनुसंधान प्रारंभ करगी। कुछ मामलें जिसमें तीन वर्ष या तीन वर्ष से अधिक एवं सात वर्ष से कम सजा का प्रावधान किया गया है में प्रथम दृष्टया संदेह के तत्व परिलक्षित होने होने पर पुलिस उपाधीक्षक स्तर से अन्यून पदाधिकारी से लिखित अनुमति प्राप्त कर प्रारंभिक जांच थाना के भारसाधक पदाधिकारी आरंभ कर सकेंगे। जांच की प्रक्रिया 14 दिनों के अंदर पूर्ण कर लिया जाना आवश्यक होगा। जांच के प्रतिफल के गुण दोषों को विवेचित करने के उपरांत हीं प्राथमिकी दर्ज करने की कारवाई की जाएगी। यथा जांच के क्रम में यह तथ्य प्रतिपादित होता है कि घटना संज्ञेय प्रकृति की घटित हुई है तो प्राथमिकी दर्ज की जाएगी अन्यथा सिर्फ सूचक को निरूपित तथ्यों की सूचना दी जाएगी और प्राथमिकी दर्ज नहीं की जाएगी। इस बदलाव से थाना पर असंगत प्राथमिकी पंजीकरण का दबाव कम होगा, साथ ही दर्ज किया गया प्राथमिकी आरंभिक चरण से ही गुणवत्तापूर्ण साक्ष्यों से परिपूरित होगा। यह अनुसंधान के क्रम में संग्रहित किए जाने वाले साक्ष्यों के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य करेगी। अनुसंधान को सही दिशा प्राप्त हो सकेगा। वस्तुतः यह प्रयास किया गया है कि गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान हो और वादी/सूचक को ससमय यथार्थ-भाव से न्याय सुलभ कराया जाए।
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