सुप्रीम कोर्ट की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एक अहम फैसले में यह साफ कर दिया है कि राज्यों को आरक्षण व्यवस्था में कोटे के भीतर भी कोटा बनाने का अधिकार है। यानी राज्य सरकारें अब अनुसूचित जाति व जनजाति वर्ग में भी आरक्षण के लिए अलग-अलग श्रेणियां बना सकती हैं। यह अधिकार अभी तक राष्ट्रपति के पास ही सुरक्षित था। संसद में ही प्रस्ताव पारित कर, किसी भी जाति को, आरक्षण के दायरे में लाया जा सकता था अथवा जाति को आरक्षण से बाहर भी किया जा सकता था। इस फैसले के बाद इन वर्गों में हाशिये पर पड़ी जातियों को आरक्षण का फायदा मिलने की उम्मीद है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि यह बात भी लगातार उठाई जा रही थी कि समुचित अवसर नहीं मिलने के कारण आरक्षित अजा-जजा वर्ग में भी ऐसी कई जातियां हैं जो सामाजिक और आर्थिक तौर पर पिछड़ेपन से उबर नहीं पा रही हैं।
सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय पर राजनीतिक दल, सामाजिक कार्यकर्ता और अन्य समूह दो भागों में बंटते दिखाई दे रहे हैं। राजनीतिक दल अपने नफे- नुकसान के हिसाब से इस फैसले पर बयानबाजी कर रहे हैं। भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े दलों ने इस मुद्दे पर लगभग चुप्पी साध रखी है। राजनीतिक चश्मे से इतर देखें तो संविधान पीठ का फैसला सामाजिक न्याय के लिए ‘मील का पत्थर’ साबित हो सकता है। वर्तमान में दलित और आदिवासियों को शिक्षा और नौकरियों में क्रमश: 15 फीसदी और 7.5 फीसदी आरक्षण हासिल है। संविधान पीठ के दो कथन महत्वपूर्ण हैं। एक, एससी-एसटी के कोटे में कुछ जातियों का उप-वर्गीकरण करने से संविधान के अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 341 का उल्लंघन नहीं होता। समानता का सिद्धांत यथावत रहेगा। दूसरे, आरक्षण एक पीढ़ी तक सीमित कर देना चाहिए। यदि पहली पीढ़ी आरक्षण का लाभ लेकर उच्च स्थिति तक पहुंच गई है, तो दूसरी पीढ़ी को आरक्षण का अधिकार नहीं मिलना चाहिए। जस्टिस बीआर गवई ने एससी-एसटी पर भी, ओबीसी की तरह, ‘क्रीमीलेयर’ लागू करने की बात कही है। यह विवादास्पद मुद्दा बन सकता है। आरक्षण के आधार पर जो दशकों से राजनीति करते आ रहे हैं अथवा आरक्षण के कारण ही राजस्थान की एक खास जाति में पीढ़ी-दर-पीढ़ी आईएएस अफसर बनते रहे हैं, वे अपने हिस्से को बंटने क्यों देंगे?
अनुसूचित जाति समूह के भीतर जातियों को आरक्षण के लाभ से वंचित करने का इतिहास दशकों पुराना है। वर्ष 1960 में कोटे के अंदर कोटा की मांग आंध्र प्रदेश में उठी थी, जो कई सालों तक चली। इसके बाद 1997 में तब की आंध्र प्रदेश सरकार ने न्यायमूर्ति पी रामचंद्र राजू आयोग का गठन किया, जिसने कहा था कि आरक्षण का लाभ बड़े पैमाने पर अनुसूचित जातियों के बीच एक विशेष जाति के पास गया है और इसलिए, एससी को चार समूहों में वर्गीकृत करने की सिफारिश की।
1998 में तत्कालीन आंध्र प्रदेश सरकार ने अनुसूचित जातियों में एक सब कैटेगरी बनाने का एक प्रस्ताव पास किया। 2001 में यूपी सरकार ने हुकुम सिंह समिति का गठन किया, जिसने कहा कि आरक्षण का लाभ सबसे अधिक वंचित वर्गों के लोगों तक नहीं पहुंचा है। इसमें कहा गया कि यादवों को अकेले नौकरियों का अधिकतम हिस्सा मिला है। इस समिति ने भी एससी/ओबीसी की सूची की सब कैटेगरी बनाने की सिफारिश की थी। 2005 में कर्नाटक सरकार ने न्यायमूर्ति एजे सदाशिव पैनल की स्थापना की, जिसमें एससी जातियों के बीच उन जातियों की पहचान करने पर जोर दिया गया, जिन्हें कोटा से लाभ नहीं मिला। पैनल ने 101 जातियों को चार श्रेणियों में विभाजित करने की सिफारिश की।
2006 में तब की केंद्र सरकार ने सब कैटेगरी के लिए एक पैनल बनाने का निर्णय लिया। 2007 में उषा मेहरा को इस पैनल का अध्यक्ष बनाया गया। 2007 में ही बिहार के महादलित पैनल ने भी ऐसी सिफारिशें की। इसमें कहा गया कि एससी की 18 जातियों को अत्यंत कमजोर जातियों के रूप में माना जाना चाहिए। 2008 में उषा मेहरा ने केंद्र को रिपोर्ट सौंपी। 2009 में यूनाइटेड आंध्र प्रदेश से सीएम वाईएस राजशेखर रेड्डी ने केंद्र को पत्र लिख इसे संवैधानिक गारंटी देने की मांग की। साल 2014 में तेलंगाना के बनने के बाद केसीआर ने एक प्रस्ताव पास कर केंद्र से सब कैटेगरी बनाने की मांग की। 2023 में सिकंदराबाद की एक सभा में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि वो कोटे के अंदर कोटे का समर्थन करेंगे। पहली अगस्त, 2024 को सुप्रीम कोर्ट ने अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया है।
ताजा फैसला पंजाब का है। दरअसल पंजाब सरकार ने 2006 में कानून बनाया था कि राज्य में एससी-एसटी आरक्षण में 50 फीसदी आरक्षण, पहली प्राथमिकता के तहत, वाल्मीकि और मजहबी सिखों को मिलेगा। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने 2010 में इसे रद्द कर दिया था। इन तमाम संदर्भों में पीठ ने अलग-अलग अनुच्छेद की व्याख्या स्पष्ट की है और राज्यों के अधीन उप-वर्गीकरण का फैसला दिया है। डाटा के आधार पर यह कोटा बदलता रहेगा। यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि किसी एक वर्ग को 100 फीसदी आरक्षण न दे दिया जाए।
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले से वर्ष 2004 के ‘ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र’ वाले मामले में दिए गए अपने फैसले का फैसले को पलट दिया है। जिसमें कहा गया था कि राज्य सरकारें आरक्षण के लिए अनुसूचित जातियों व जनजातियों की सब-कैटेगरी नहीं बना सकतीं। सुप्रीम कोर्ट ने अब कहा है कि राज्यों को सब-कैटेगरी देने से पहले एससी और एसटी श्रेणियों के बीच क्रीमीलेयर की पहचान करने के लिए एक पॉलिसी बनानी चाहिए। यह अवधारणा भी स्पष्ट होनी चाहिए।
ओबीसी और आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण उनकी सालाना आय के आधार पर तय किया जाता है। क्रीमीलेयर की सीमा 8 लाख रुपये सालाना है। यानी करीब 67,000 रुपए महीना। यह वर्ग गरीब कैसे हो सकता है? दूसरी ओर वे लोग भी हैं, जो तीन चार सौ रुपए रोजाना कमाने में भी असमर्थ हैं। बेहतर होता कि क्रीमीलेयर पर भी न्यायिक फैसला सुनाया जाता। मंडल के बाद यह दूसरा ऐतिहासिक फैसला है। ‘मील का पत्थर’ तभी साबित हो सकता है, जब क्रीमीलेयर वाला फैसला लागू किया जाएगा। जाहिर है कि फैसले को धरातल पर लागू कराने के लिए राज्यों को काफी काम करने की जरूरत है। एससी-एसटी की गणना उपलब्ध है, लिहाजा जातीय जनगणना अनिवार्य नहीं है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कह दिया है कि सब-कैटेगरी का आधार उचित होना चाहिए। राज्य अपनी मर्जी से या राजनीतिक आधार पर सब-कैटेगरी तय नहीं कर सकें इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने न्यायिक सुरक्षा का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा है।
इस फैसले के बाद पर्याप्त संभावना है कि एससी-एसटी अब एक समूह नहीं रह जाएगा। उनके भीतर ही अलग-अलग वर्ग खड़े हो जाएंगे और फिर उनसे जुड़ी नई राजनीति उबलने लगेगी। संविधान निर्माता बाबा साहब आम्बेडकर के पौत्र प्रकाश आम्बेडकर ने संविधान पीठ के फैसले की आलोचना की है और इसे ‘सामाजिक पूर्वाग्रह’ करार दिया है। उनकी आशंका है कि दलितों का कोटा कम होने लगेगा। केंद्र सरकार में ही एनडीए की सहयोगी लोजपा (रामविलास) ने फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया है, ताकि एससी-एसटी वर्ग में भेदभाव न हो और वे कमजोर न पड़ें। चूंकि इसे राज्य लागू कर सकेंगे, अतएव यह प्रश्न प्रासंगिक है कि कब तक यह निर्णय लागू किया जा सकेगा।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)
कोटे के अंदर कोटा का सुप्रीम निर्णय
Author: डॉ. आशीष वशिष्ठ | Date: 2024-08-06 16:42:15
You Can give your opinion here