अध्याय 25: विकृतचित्त अभियुक्त व्यक्तियों के बारे में उपबंध
328. अभियुक्त के पागल होने की दशा में प्रक्रिया --
(1) जब जांच करने वाले मजिस्ट्रेट को यह विश्वास करने का कारण है कि वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध जांच की जा रही है विकृतचित्त है और परिणामतः अपनी प्रतिरक्षा करने में असमर्थ है तब मजिस्ट्रेट ऐसी चित्त-विकृति के तथ्य की जांच करेगा और ऐसे व्यक्ति की परीक्षा उस जिले के सिविल सर्जन या अन्य ऐसे चिकित्सक अधिकारी द्वारा कराएगा, जिसे राज्य सरकार निर्दिष्ट करे, और फिर ऐसे सिविल सर्जन या अन्य अधिकारी की साक्षी के रूप में परीक्षा करेगा और उस परीक्षा को लेखबद्ध करेगा।
(1क) यदि सिविल सर्जन अभियुक्त को चित्त विकृत पाता है, वह ऐसे व्यक्ति को किसी मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक के पास देखभाल, उपचार तथा रोग की पूर्व सूचना देने के लिए निर्दिष्ट करेगा तथा यथास्थिति मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक मजिस्ट्रेट को सूचित करेगा कि क्या अभियुक्त चित्त विकृतता या बुद्धि-मन्दता से ग्रस्त है :
परन्तु यह कि यथास्थिति मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक द्वारा मजिस्ट्रेट को दी गई सूचना से यदि अभियुक्त व्यथित है, वह मेडिकल बोर्ड के समक्ष अपील कर सकता है, जिसमें सम्मिलित होंगे :
(क) निकटतम शासकीय चिकित्सालय में मनोचिकित्सा इकाई का प्रमुख; और
(ख) निकटतम मेडिकल कॉलेज में मनोचिकित्सा संकाय का सदस्य ।
(2) ऐसी परीक्षा और जांच लंबित रहने तक मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति के बारे में धारा 330 के उपबंधों के अनुसार कार्यवाही कर सकता है।
(3) यदि ऐसे मजिस्ट्रेट को सूचित किया जाता है कि उपधारा (1-क) में निर्दिष्ट किया गया व्यक्ति विकृत चित्त का व्यक्ति है, मजिस्ट्रेट यह और अवधारित करेगा कि क्या चित्त की विकृतता ने अभियुक्त को प्रतिरक्षा करने के लिए अक्षम बना दिया है और यदि अभियुक्त को इस प्रकार अक्षम पाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट इस प्रभाव के निष्कर्ष को अभिलिखित करेगा, तथा अभियोजन द्वारा पेश किए गए साक्ष्य के अभिलेख का परीक्षण करेगा तथा अभियुक्त के अधिवक्ता को सुनने के पश्चात् लेकिन अभियुक्त को प्रश्न किए बिना, यदि वह यह पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई प्रथम दृष्टया मामला सिद्ध नहीं होता है, तब वह जाँच को स्थगित करने के बजाए, अभियुक्त को उन्मोचित कर देगा तथा उसके बारे में धारा 330 के अधीन उपबन्धित रीति से कार्यवाही करेगा :
परन्तु यह कि यदि मजिस्ट्रेट पाता है कि उस अभियुक्त के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला सिद्ध होता है जिसके सम्बन्ध में चित्त विकृतता का निष्कर्ष निकाला गया है, वह ऐसी अवधि के लिए कार्यवाही को मुल्तवी करेगा, जैसा कि मनोचिकित्सक या चिकित्सीय मनोवैज्ञानिक की राय में अभियुक्त के उपचार के लिए अपेक्षित है तथा अभियुक्त के बारे में धारा 330 के अधीन यथा उपबन्धित ढंग से कार्यवाही करने का आदेश करेगा।
(4) यदि मजिस्ट्रेट को सूचित किया जाता है कि उपधारा (1-क) में निर्दिष्ट व्यक्ति बुद्धि-मन्दता के साथ व्यक्ति है, मजिस्ट्रेट यह और अवधारित करेगा कि क्या बुद्धि-मन्दता ने अभियुक्त को प्रतिरक्षा करने में अक्षम बना दिया है, तथा यदि अभियुक्त ऐसे अक्षम पाया जाता है, मजिस्ट्रेट जाँच को बन्द करना आदेशित करेगा तथा अभियुक्त के बारे में धारा 330 के अधीन उपबन्धित ढंग से कार्यवाही करेगा।
CHAPTER XXV: PROVISIONS AS TO ACCUSED PERSONS OF UNSOUND MIND
328. Procedure in case of accused being lunatic —
(1) When a Magistrate holding an inquiry has reason to believe that the person against whom the inquiry is being held is of unsound mind and consequently incapable of making his defence, the Magistrate shall inquire into the fact of such unsoundness of mind, and shall cause such person to be examined by the civil surgeon of the district or such other medical officer as the State Government may direct, and thereupon shall examine such surgeon or other officer as a witness, and shall reduce the examination to writing.
(1A) If the civil surgeon finds the accused to be of unsound mind, he shall refer such person to a psychiatrist or clinical psychologist for care, treatment and prognosis of the condition and the psychiatrist or clinical psychologist, as the case may be, shall inform the Magistrate whether the accused is suffering from unsoundness of mind or mental retardation :
Provided that if the accused is aggrieved by the information given by the psychiatric or clinical psychologist, as the case may be, to the Magistrate, he may prefer an appeal before the Medical Board which shall consist of :
(a) head of psychiatry unit in the nearest government hospital; and
(b) a faculty member in psychiatry in the nearest medical college.
(2) Pending such examination and inquiry, the Magistrate may deal with such person in accordance with the provisions of section 330.
(3) If such Magistrate is informed that the person referred to in sub-section (1A) is a person of unsound mind, the Magistrate shall further determine whether the unsoundness of mind renders the accused incapable of entering defence and if the accused is found so incapable, the Magistrate shall record a finding to that effect, and shall examine the record of evidence produced by the prosecution and after hearing the advocate of the accused but without questioning the accused, if he finds that no prima facie case is made out against the accused, he shall, instead of postponing the enquiry, discharge the accused and deal with him in the manner provided under section 330 : :
Provided that if the Magistrate finds that a prima facie case is made out against the accused in respect of whom a finding of unsoundness of mind is arrived at, he shall postpone the proceeding for such period, as in the opinion of the psychiatrist or clinical psychologist, is required for the treatment of the accused, and order the accused to be dealt with as provided under section 330.
(4) If such Magistrate is informed that the person referred to in sub-section (1A) is a person with mental retardation, the Magistrate shall further determine whether the mental retardation renders the accused incapable of entering defence, and if the accused is found so incapable, the Magistrate shall order closure of the inquiry and deal with the accused in the manner provided under section 330.
You Can give your opinion here